होम मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाले भीष्म ने किया श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा को भंग

मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाले भीष्म ने किया श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा को भंग

महात्मा भीष्म आदर्श पितृभक्त, आदर्श सत्यप्रतिज्ञ, शास्त्रों के महान ज्ञाता तथा परम भगवद् भक्त थे। इनके पिता भारतवर्ष के चक्रवर्ती सम्राट महाराज शान्तनु तथा माता भगवती गंगा थीं। महर्षि वसिष्ठ के शाप से ‘द्यौ’ नामक अष्टम वसु ही भीष्म के रूप में इस धरा धाम पर अवतीर्ण हुए थे।

मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाले भीष्म ने किया श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा को भंग

महात्मा भीष्म आदर्श पितृभक्त, आदर्श सत्यप्रतिज्ञ, शास्त्रों के महान ज्ञाता तथा परम भगवद् भक्त थे। इनके पिता भारतवर्ष के चक्रवर्ती सम्राट महाराज शान्तनु तथा माता भगवती गंगा थीं। महर्षि वसिष्ठ के शाप से ‘द्यौ’ नामक अष्टम वसु ही भीष्म के रूप में इस धरा धाम पर अवतीर्ण हुए थे। 

बचपन में इनका नाम देवव्रत था। एक बार इनके पिता महाराज शान्तनु कैवर्त राज की पालिता पुत्री सत्यवती के अनुपम सौंदर्य पर मुग्ध हो गए। कैवर्त राज ने उनसे कहा कि, ‘‘मैं अपनी पुत्री का विवाह आप से तभी कर सकता हूं, जब इसके गर्भ से उत्पन्न पुत्र को ही आप अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाने का वचन दें।’’

महाराज शान्तनु अपने शीलवान् पुत्र देवव्रत के साथ अन्याय नहीं करना चाहते थे। अत: उन्होंने कैवर्त राज की शर्त को अस्वीकार कर दिया, किंतु सत्यवती की आसक्ति और चिंता में वह उदास रहने लगे।

जब भीष्म को महाराज की चिंता और उदासी का कारण मालूम हुआ, तब इन्होंने कैवर्त राज के सामने जाकर प्रतिज्ञा की कि, ‘‘आपकी कन्या से उत्पन्न पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होगा।’’

जब कैवर्त राज को इस पर भी संतोष नहीं हुआ तो इन्होंने आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करने का दूसरा प्रण किया। देवताओं ने इस भीष्म प्रतिज्ञा को सुन कर आकाश से पुष्प वर्षा की और तभी से देवव्रत का नाम ‘भीष्म’ प्रसिद्ध हुआ। इनके पिता ने इन पर प्रसन्न होकर इन्हें इच्छा मृत्यु का दुर्लभ वर प्रदान किया।

सत्यवती के गर्भ से महाराज शान्तनु को चित्रांगद और विचित्रवीर्य नाम के दो पुत्र हुए। महाराज की मृत्यु के बाद चित्रांगद राजा बनाए गए, किंतु गंधर्वों के साथ युद्ध में उनकी मृत्यु हो गई। विचित्रवीर्य अभी बालक थे। उन्हें सिंहासन पर आसीन करके भीष्म जी राज्य का कार्य देखने लगे। विचित्रवीर्य के युवा होने पर उनके विवाह के लिए काशीराज की तीन कन्याओं का बल पूर्वक हरण करके भीष्म जी ने संसार को अपने अस्त्र-कौशल का प्रथम परिचय दिया।

काशी नरेश की बड़ी कन्या अम्बा शाल्व से प्रेम करती थी, अत: भीष्म ने उसे वापस भेज दिया, किंतु शाल्व ने उसे स्वीकार नहीं किया। अम्बा ने अपनी दुर्दशा का कारण भीष्म को समझ कर उनकी शिकायत परशु राम जी से की। परशु राम जी ने भीष्म से कहा, ‘‘तुमने अम्बा का बल पूर्वक अपहरण किया है, अत: तुम्हें इससे विवाह करना होगा, अन्यथा मुझसे युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।’’

परशुराम जी से भीष्म का इक्कीस दिनों तक भयानक युद्ध हुआ। अंत में ऋषियों के कहने पर लोक कल्याण के लिए परशुराम जी को ही युद्ध विराम करना पड़ा। भीष्म अपने प्रण पर अटल रहे।

महाभारत के युद्ध में भीष्म को कौरव पक्ष के प्रथम सेनानायक होने का गौरव प्राप्त हुआ। इस युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने शस्त्र न ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की थी। एक दिन भीष्म ने भगवान को शस्त्र ग्रहण कराने की प्रतिज्ञा कर ली। 

इन्होंने अर्जुन को अपनी बाण वर्षा से व्याकुल कर दिया। भक्त वत्सल भगवान ने भक्त के प्राण की रक्षा के लिए अपनी प्रतिज्ञा को भंग कर दिया और रथ का टूटा हुआ पहिया लेकर भीष्म की ओर दौड़ पड़े। भीष्म मुग्ध हो गए भगवान की इस भक्त वत्सलता पर। अठारह दिनों के युद्ध में दस दिनों तक अकेले घमासान युद्ध करके भीष्म ने पांडव पक्ष को व्याकुल कर दिया और अंत में शिखंडी के माध्यम से अपनी मृत्यु का उपाय स्वयं बताकर महाभारत के इस अद्भुत योद्धा ने शर शय्या पर शयन किया। शास्त्र और शस्त्र के इस सूर्य को अस्त होते हुए देख कर भगवान श्रीकृष्ण ने इनके माध्यम से युधिष्ठिर को धर्म के समस्त अंगों का उपदेश दिलवाया। सूर्य के उत्तरायण होने पर पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण की छवि को अपनी आंखों में बसाकर महात्मा भीष्म ने अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। 

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