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वैलेंटाइन डे कभी प्यार का नहीं वासना का त्यौहार था

वैलेंटाइन डे कभी प्यार का नहीं वासना का त्यौहार था

वैलेंटाइन डे कभी प्यार का नहीं वासना का त्यौहार था

वैलेंटाइन डे पश्चिमी देशों की परंपरा और त्यौहार है और अब इसे पुरे देश में मनाया जाता है, आज हम आपको इस डे के बारे में कुछ ऐसी चीजे बताएँगे जिसके बारे में शायद ही आप लोग जानते होंगे । वैलेंटाइन डे कभी प्यार का नहीं वासना और अय्यासी का त्यौहार हुआ करता था। आज इस डे को प्यार के दिवस के रूप में मनाया जाता है।  वेलेंटाइन डे  का मतलब, दिलों, प्यार, गुलाब का फूल और दोस्ती जिसकी हवा में प्यार की खुशबू मिल जाती है। यह मौसम साल का सबसे अच्छा मौसम मन जाता है जिसमें लोग प्यार रोमांस की बाते करते हैं, लेकिन इस दिवस के अतीत पर नजर डाला जाए तो भयानक दिवस के रूप में मनाया जाता था। 

इस दिवस की शुरुआत रोम से हुई थी, 13 से 15 फरवरी तक रोम के लोग लुपेर्केलिया नामक त्यौहार मनाते थे। जिसमे पुरुष पहले एक कुत्ते बकरे की बलि देते थे उसकी खाल से महिलाओं को पीटते थे।  पोप गेलासियास प्रथम (492-496) ने लुपेर्केलिया नामक त्यौहार को समाप्त कर दिया थे। बाद में इस त्यौहार को रोमन में ही  संत वैलेंटाइन के नाम से जाना जाने लगा। 

नोएल लेंसकी नामक इतिहासकार के अनुसार इस दिन रोमन नग्न रहते थे खूब शराब पीते थे।  प्राचीन समय में रोम के लोग इस दिन एक डब्बे में कई लड़कियों के नाम लिखकर डाल देते थे, उसके बाद हर पुरुष उसमे से अपना पार्टनर चुनता था यह पार्टनर कितनी देर तक साथ रहेंगे इस बात का फैसला वे ही करते थे।  लेंसकी बताते हैं कि इस दिन कुंवारी लड़कियों को लाइन में खड़ा कर दिया जाता था, जिसे पुरुष पीटते थे, उनका मानना था कि इससे वे प्रजननक्षम बनेंगी।  इसके बाद 13 से 15 शताब्दी के आस पास शकेस्पेयर चौसर ने वैलेंटाइन डे को अपने नाटकों में स्थान देकर ब्रिटैन में लोकप्रिय कर दिया, जहां से यह दुनिया भर में फैल गया।

व्यावसायिक हो गया वैलेंटाइन डे 
अमेरिका ने ग्रीटिंग कार्ड एसोसिएशन का अनुमान है कि लगभग एक अरब वैलेंटाइन हर साल पूरी दुनिया में भेजे जाते हैं, जिसके कारण क्रिसमस के बाद इस छुट्टी को कार्ड भेजने वाले दूसरे सबसे बड़े दिवस के रूप में जाना जाता है। इस दिन के इतिहास से यह तो माना जा सकता है कि यह दिन प्रेम का नहीं बल्कि वासना का है, जिसका भारतीय संस्कृति में कोई स्थान नहीं है, किन्तु फिर भी हमारी नई पीढ़ी ने पाश्चात्य सभ्यता के पैर इतने कसकर पकड़े हैं कि उन्हें उस सभ्यता का नक़ाबपोश चेहरा साफ़ नज़र नहीं आता। 

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