
Emergency 1975: आपातकाल की घोषणा के 50 साल पूरे हो गए हैं। 25-26 जून 1975 की मध्य रात्रि को भारत में आपातकाल लागू किया गया था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अचानक लोकतंत्र को संकट में डाल दिया था। इस समय लोकनायक जयप्रकाश नारायण समेत तमाम विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था और अधिकांश नागरिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था। आज के दिन को भारतीय लोकतंत्र के सबसे काले अध्यायों में गिना जाता है।
आज की पीढ़ी के लिए अनजान इतिहास
आपातकाल के काले दिनों की सच्चाई आज की पीढ़ी के लिए बहुत हद तक अनजान है, क्योंकि उस समय के बाद से अधिकतर लोग जन्मे हैं। हालांकि, यदि हम इतिहास की बात करें, तो आपातकाल का मूल्यांकन करना अब कठिन हो गया है। उस समय इंदिरा गांधी की तानाशाही का विरोध करने वाले कई नेता और दल अब उनकें प्रशंसक बन गए हैं, और यह सवाल उठता है कि ऐसा क्यों हुआ।
इंदिरा गांधी का नेतृत्व और कांग्रेस का विभाजन
1969 में कांग्रेस दो धड़ों में बंट गई थी—कांग्रेस (संगठन) और कांग्रेस (आर)। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1971 के चुनाव में स्पष्ट बहुमत हासिल किया और उनका नेतृत्व मजबूत हुआ। इसके बाद भारत-पाक युद्ध और बांग्लादेश के निर्माण ने इंदिरा गांधी की लोकप्रियता को ऊंचाई पर पहुंचा दिया। हालांकि, इसके बाद ही इंदिरा गांधी के नेतृत्व में दरारें भी आनी शुरू हो गईं। गुजरात आंदोलन और लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में बिहार में शुरू हुआ आंदोलन, इंदिरा गांधी के लिए कठिनाइयाँ पैदा कर रहा था।
12 जून 1975 का काला दिन
12 जून 1975 का दिन इंदिरा गांधी के लिए बहुत ही कष्टकारी था। इस दिन तीन बुरी खबरें आईं:
- गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार
- इंदिरा गांधी के विश्वासपात्र डी पी धर का निधन
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रायबरेली से इंदिरा गांधी की जीत को कदाचार के कारण रद्द कर दिया और छह साल तक चुनाव लड़ने से रोक दिया।
न्यायालय का साहसिक निर्णय
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के खिलाफ निर्णय सुनाते हुए उनकी जीत को कदाचार के आधार पर खारिज कर दिया। हालांकि, इसके बाद न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा को प्रलोभन देने की कोशिश की गई, ताकि वे प्रधानमंत्री के पक्ष में फैसला सुनाएं, लेकिन जस्टिस सिन्हा ने किसी भी प्रलोभन के बिना साहसिक तरीके से फैसला सुनाया।
मध्य रात्रि में आपातकाल की घोषणा
24 जून को उच्चतम न्यायालय में सुनवाई के बाद, इंदिरा गांधी को एक बड़ी राहत मिली, क्योंकि उन्हें प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की अनुमति मिल गई, लेकिन उन्हें संसद में मतदान करने का अधिकार नहीं था। इसके अगले दिन 25-26 जून 1975 की मध्य रात्रि को इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी। इस फैसले ने लोकतंत्र के संस्थानों को पूरी तरह से हिलाकर रख दिया।
संवैधानिक संस्थाओं का समर्पण
आपातकाल के दौरान कई संवैधानिक संस्थाएं पूरी तरह से समर्पित हो गईं। राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री के प्रस्ताव को बिना मंत्रिमंडल की संस्तुति के स्वीकार किया, जो संविधान के खिलाफ था। इसके बाद विधायिका ने भी खुद को पूरी तरह से समर्पित कर दिया, और 39वां संविधान संशोधन लागू किया गया। इस संशोधन के तहत राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, और लोकसभा अध्यक्ष के चुनावों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी।
42वें संविधान संशोधन और नागरिक अधिकारों का हनन
42वां संविधान संशोधन इतना व्यापक था कि इसे 'मिनी संविधान' कहा जाता है। इसने संसद को संविधान में संशोधन का असीमित अधिकार दे दिया और न्यायपालिका की शक्ति को सीमित कर दिया। आपातकाल के दौरान नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन किया गया और संविधान में ऐसे संशोधन किए गए, जो लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के खिलाफ थे।
आपातकाल के दौरान अनुशासन और व्यावसायिक सुधार
हालाँकि, आपातकाल के दौरान कुछ सकारात्मक पहलू भी देखने को मिले। सरकारी कर्मचारियों के अनुशासन में सुधार हुआ, ट्रेनें समय पर चलने लगीं और सरकारी दफ्तरों में कामकाजी समय बेहतर हो गया। फिर भी, यह सब नागरिक स्वतंत्रताओं के हनन के मुकाबले बहुत कम मायने रखता था।
एक काला अध्याय
आपातकाल के समय के दौरान सरकारी तंत्र, न्यायपालिका और अन्य संवैधानिक संस्थाओं ने अपनी स्वतंत्रता खो दी और पूरी तरह से इंदिरा गांधी के अधीन हो गए। यही कारण है कि आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र के एक काले अध्याय के रूप में याद किया जाता है।
आज, जब हम आपातकाल की कड़ी यादों को याद करते हैं, तो यह सवाल उठता है कि कैसे जिन नेताओं ने उस समय इंदिरा गांधी के तानाशाही शासन का विरोध किया, वे अब उनके प्रशंसक बन गए हैं। यह राजनीति के बदलते चेहरे और समय के प्रभाव का ही परिणाम है कि सत्ता के समीकरण बदलने पर विरोधी भी प्रशंसा करने से नहीं चूकते।
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