श्रद्धावान लभते। यदि आप किसी के प्रति श्रद्धालु नहीं हैं तो आपको अपेक्षित लाभ नहीं मिल सकेगा। मंदिर तक पहुंचने वाले को ही देव दर्शन लाभ मिलता है। किसी से कुछ सीखने के लिए आदमी का छोटा बनना जरूरी है। उसे नीचे बैठना पड़ता है। कोई दी जानेवाली चीज ऊपर के हाथ से नीचे के ही हाथ को मिलती है। नदियां पहाड़ों से नीची होने के कारण ही उनसे विपुल जलराशि ग्रहण करती रहती हैं।
यदि हम देनेवाले को अक्षम मानकर, उसकी हंसी उड़ाकर उससे कुछ चाहते हैं, तब हम उससे सही लाभ नहीं ले सकते। दूसरे शब्दों में, हमें जिससे कुछ ग्रहण करना होता है, उसे उस क्षेत्र में अपने से बड़ा मानना होता है।
ईश्वर, माता-पिता, गुरु आदि से हमें इसीलिए हमारा प्राप्य मिलता है कि हम अपने को उनसे छोटा मानते हैं। स्वयं को छोटा मानने का मतलब है हममें नम्रता का गुण होना। देनेवालों के उपकार का स्रोत भी तभी तक खुला रह सकता है जब तक उन्हें देनेवाला माना जाए। उसका बुरा सोचकर हम उनसे अच्छा पाने की आशा नहीं कर सकते। वे मशीन नहीं, प्राणी होते हैं, जबकि मशीन तक को अच्छा उत्पादन देने के लिए अच्छी तेल-सफाई और उचित हस्तन-संचालन चाहिए।
श्रद्धा के अर्थ का विस्तार करके हम उपयुक्त तथ्य को निर्जीव वस्तुओं पर भी लागू कर सकते हैं। पढ़ाई हो या नौकरी, गृहकार्य हो या व्यापार, जब तक हम अपने काम को श्रद्धापूर्वक (निष्ठापूर्वक, मनोयोगपूर्वक) नहीं करते हैं तब तक हमें उससे स्थाई लाभ मिलने की संभावना नहीं रहती। कहते हैं कि श्रद्धा यदि पत्थर में हो, तब भी लाभ मिलता है, क्योंकि श्रद्धा करने के फलस्वरूप हमारा अहंकार दबा रहता है और गुणों के विकास का रास्ता खुला रहता है, जिससे सफलता सुगम हो जाती है। हम अच्छाई में जितनी अधिक श्रद्धा रखते हैं, हमारे अन्दर अच्छाई उतनी ही अधिक जड़ें जमाती है।
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