
Dalai Lama Successor: भारत और चीन के रिश्ते पहले से ही तनावपूर्ण हैं, और अब दलाई लामा के उत्तराधिकार को लेकर जारी विवाद ने दोनों देशों के बीच एक नया कूटनीतिक मोर्चा खोल दिया है। भारत ने साफ कर दिया है कि दलाई लामा के उत्तराधिकारी को चुनने का अधिकार केवल तिब्बती बौद्ध परंपराओं और स्वयं दलाई लामा का है, न कि किसी सरकार का – यह बात चीन को सीधी चुनौती की तरह लग रही है।
चीन क्यों चाहता है दलाई लामा पर नियंत्रण?
दलाई लामा तिब्बती बौद्ध धर्म के सबसे बड़े आध्यात्मिक नेता हैं। मौजूदा दलाई लामा, तेनजिन ग्यात्सो, 1935 में जन्मे थे और 1959 में तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद भारत में निर्वासन में आ गए थे।
चीन तिब्बती संस्कृति, धर्म और नेतृत्व पर पूर्ण नियंत्रण चाहता है ताकि तिब्बती क्षेत्र में किसी भी तरह की राजनीतिक अस्थिरता या आज़ादी की मांग को कुचला जा सके। यही वजह है कि वह अगला दलाई लामा अपनी शर्तों पर चुनवाना चाहता है।
2007 में चीन ने एक कानून (State Religious Affairs Bureau Order No. 5) पारित किया, जिसमें किसी भी धार्मिक पुनर्जन्म को सरकार की मंजूरी जरूरी बताई गई। चीन चाहता है कि अगला दलाई लामा बीजिंग समर्थित हो, जबकि वर्तमान दलाई लामा स्पष्ट कर चुके हैं कि उनका उत्तराधिकारी तिब्बत में नहीं, बल्कि भारत या किसी स्वतंत्र देश में चुना जाएगा।
भारत ने चीन के दावे को सिरे से खारिज किया
भारत ने चीन के इस दावे को खारिज करते हुए कहा कि
“दलाई लामा का उत्तराधिकारी तय करना केवल तिब्बती बौद्ध परंपराओं और उनकी आध्यात्मिक व्यवस्था का विषय है।”
यह बयान पर्यावरण और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने दलाई लामा के 90वें जन्मदिन समारोह से पहले दिया। उन्होंने कहा कि भारत दलाई लामा की परंपराओं और फैसलों का पूरा समर्थन करता है, और यह पूरी तरह धार्मिक-आध्यात्मिक विषय है, जिसमें कोई बाहरी हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
चीन को क्यों हो रही बेचैनी?
- तिब्बती स्वतंत्रता आंदोलन और दलाई लामा की वैश्विक छवि चीन के लिए एक चुनौती हैं।
- चीन को डर है कि भारत अगर निर्वासित तिब्बती समुदाय द्वारा चुने गए दलाई लामा को मान्यता देता है, तो लद्दाख, अरुणाचल और सिक्किम जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में चीन विरोधी भावना को बल मिल सकता है।
- यह मुद्दा चीन की अंतरराष्ट्रीय छवि को भी प्रभावित कर सकता है, खासकर जब दलाई लामा को दुनिया भर में शांति और सहिष्णुता का प्रतीक माना जाता है।
क्या इससे बिगड़ सकते हैं भारत-चीन संबंध?
दलाई लामा को भारत में शरण देने से लेकर अब तक चीन ने हमेशा इस मुद्दे को भारत के खिलाफ एक रणनीतिक असहमति के रूप में देखा है।
- 1962 के भारत-चीन युद्ध की एक पृष्ठभूमि भी तिब्बत ही था।
- 2020 की गलवान झड़प के बाद दोनों देशों के बीच सीमा वार्ता ठप है।
- भारत ने हाल में अरुणाचल में इन्फ्रास्ट्रक्चर और दलाई लामा की सार्वजनिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया है, जिससे बीजिंग असहज है।
अगर भारत निर्वासित तिब्बती समुदाय द्वारा चुने गए दलाई लामा को आधिकारिक मान्यता देता है, तो यह चीन के लिए सीधी राजनीतिक चुनौती होगी।
इससे व्यापार, कूटनीति और सीमा से जुड़े मसले और भी उलझ सकते हैं। चीन पाकिस्तान को भारत विरोधी रणनीति में और सक्रिय कर सकता है, जबकि भारत ताइवान, हांगकांग और दक्षिण चीन सागर जैसे संवेदनशील मुद्दों पर खुलकर बोल सकता है।
क्या भारत तिब्बत की स्वतंत्रता का समर्थन करेगा?
भारत अभी तक औपचारिक रूप से तिब्बत की स्वतंत्रता की वकालत नहीं करता, लेकिन वह चीन के तिब्बत पर नियंत्रण को बौद्धिक और कूटनीतिक स्तर पर चुनौती जरूर देता आया है।
दलाई लामा के उत्तराधिकारी का चयन तिब्बतियों की पहचान और अस्तित्व का सवाल है — और भारत इसमें एक मजबूत नैतिक भूमिका निभा रहा है।
नई चुनौती, नई स्थिति
भारत का रुख स्पष्ट है — यह केवल धार्मिक परंपरा का विषय है, न कि राजनीतिक निर्णय का।
दलाई लामा के उत्तराधिकार पर भारत के समर्थन और चीन के हस्तक्षेप का विरोध भारत-चीन संबंधों में नई तल्खी ला सकता है। आने वाले समय में यह मुद्दा सीमा विवाद से लेकर कूटनीतिक समीकरणों तक कई परतों में असर डालेगा।
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