होम कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्

धर्म-अध्यात्म

कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्

श्री कृष्ण भगवान ने गीता में कहा है कि ये सारे कर्म मुझको अर्पित कर दो याने कि कत्र्ता का भाव छोड़ दे और निमित्त बन जा।

 कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्

श्री कृष्ण भगवान ने गीता में कहा है कि ये सारे कर्म मुझको अर्पित कर दो याने कि कत्र्ता का भाव छोड़ दे और निमित्त बन जा। तू कौन? हर एक जीवात्मा निमित्त क्यों हो कारण होता है प्रत्येक कर्म और क्रिया के पीछे इसी कारण के साथ इच्छा पैदा होती है। जिस विषय का ज्ञान हो उसी की इच्छा मन में पैदा होती है। व्यक्ति इच्छा को स्वयं प्रकट नहीं कर सकता इससे हटकर किया गया कर्म बुद्धि द्वारा आरोपित कर्म जहां अंहकार की भूमिका मुख्य होती है जब जीवन का कर्ता भाव हावी होता है।
कर्म एक विशेष में प्रकट होता है जो कुछ मनुष्य करता है उससे कुछ फल उत्पन्न होता है यह फल शुभ और अशुभ दोनों अथवा दोनों से भिन्न होता है। फल का यह स्वरूप क्रिया के द्वारा स्थिर होता है। दान शुभ है, हिंसा अशुभ इसी लिए कहा गया है- कर्म किये जा फल की इच्छा पर कर इन्सान जैसे कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान।
गीता के अनुसार चार प्रकार के योगों का वर्णन है- 1. ज्ञान योग, 2.सांख्य योग, 3.कर्म योग, 4.भक्ति योग- प्रथम ज्ञान योग हमें बतलाता है कि कोई भी जीव, वस्तु, मनुष्य जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है। जो कुछ हम देख रहे हंै वे सभी वस्तुएं नाशवान हैं, हमारा शरीर भी नाशवान है।  हम आत्मा हैं। जो शाश्वत है जो कभी भी न तो जन्म लेती है और न ही किसी के द्वारा मारी जा सकती है वह भगवान का ही अंश है। जिसे किन्हीं कारणों से यह शरीर मिला है।
द्वितीय सांख्य योग हमें बतलाता है कि हम सभी जीव इन्सान, जानवर, कीड़े जो भी जीव हैं सभी परमात्मा की संतानें हंै। इसी कारण हम सभी का एक-दूसरे से संबंध है इसलिए हमं सभी जीवों के प्रति समभाव रखना चाहिए। ईश्वर सभी जीवों में वास करते हैं हमें सभी जीवों में भगवान को देखना चाहिए और सभी के प्रति कृर्तज्ञय होना चाहिए।
तृतीय कर्म योग हमें कर्म करने की कला सिखाता है हमें कौन सा कर्म करना है। किस तरह से कर्म करते हुए भी उनमें भी बंधते एक बार जन्म लेने के बाद हमारा कर्म करना आवश्यक हो जाता है। जैसे-जैसे हम कर्म करते हैं वैसे हम उनके फलों में बंधते जाते हैं हमें एक और जन्म लेना पड़ता है फिर वहीं जीवन, वहीं दु:ख, भगवान कहते हैं कि हमें बंधने वाले कर्म नहीं बल्कि उनके प्रति हमारी आशक्ति है इसलिए हमें कर्म करना चाहिए और उनके फलों के प्रति अपनी आशक्ति को त्याग देना चाहिए। जिससे हम उनमें नहीं बंधेगें हमें कर्मो के फलों का त्याग है कर्मो का नहीं।
भक्ति योग में भगवान हमें ऐसी प्रेरणा देते है कि हम सभी कर्म उनका ध्यान करते हुए करे। अपनी इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण रखे क्योंकि यही हमारा क्रोध का कारण है। यदि मनुष्य का मन शांत नहीं है तो उसे संसार की कितनी भी वस्तुएं मिल जाएं तब भी उसका मन अशांत रहेगा। जिस मनुष्य का मन अशांत है वह सुखी किस प्रकार से हो सकता है। प्रकृति के तीनों गुणों सतत्व, रजो, और तमों के द्वारा कर्म करते हंै। सात्विक दान, राजसी दान और तामसिक दान, सात्विक मनुष्य का आचरण कैसा होगा, राजसी का कैसा और तामसी का कैसा होगा। वास्तव में गीता में सिखाती है कि हम सब कुछ इस शरीर के लिए सोचते हैं करते हंै पर यह भूल जाते हैं कि जीवन के बाद मृत्यु निश्चित है और हम उसके लिए कुछ भी तैयारी नहीं करते।
महाभारत के एक प्रसंग में शरशैय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह धर्मापदेश देते है युधिष्ठिर अपने भाईयों के साथ पितामह के चरणों के पास हैं उपदेशों को सुन रहे हंै। तभी द्रौपदी वहां आ जाती हंै और भीष्म पितामह से प्रश्न करती है कि भरी सभा में दु:शासन मेरा चीरहरण कर रहा था उस समय आपने मेरी सहायता क्यों नहीं की? उस समय आपका ज्ञान और विवेक कहां था। तब भीष्म पितामह कहते हैं कि- पुत्री तुम ठीक कहती हो। मैंने तुम्हारी सहायता नहीं की। अपने ज्ञान और विवेक का उपयोग नहीं किया क्योंकि उस समय में दुर्योधन का पापपूर्ण अन्न खा रहा था जिसका प्रभाव मेरे मन मस्तिष्क पर छाया था। खान-पान भोजन का असर उनके तन पर पड़ता है। खान-पान का असर भौतिक शरीर पर पड़ता है। यह बात मुख्यरूप से आजीविका याने रोजी-रोटी से जुड़ी है। हमारे मन पर जिसका प्रभाव प्रड़ता है वह यह है कि हमने भोजन कैसे प्राप्त किया। भोजन कैसा है इसका ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।

नवीनतम न्यूज़ अपडेट्स के लिए Facebook, Twitter, व Google News पर हमें फॉलो करें और लेटेस्ट वीडियोज के लिए हमारे YouTube चैनल को भी सब्सक्राइब करें।

Most Popular

(Last 14 days)

Facebook

To Top