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फिल्म समीक्षा

नूर : फिल्म समीक्षा

बेनूर और महा बोरिंग है सोनाक्षी की नूर

नूर : फिल्म समीक्षा

सबा इम्तियाज के उपन्यास कराची यू आर किलिंग मी पर निर्देशक सुनील सिप्पी ने सोनाक्षी सिन्हा को लेकर नूर नामक फिल्म बनाई है। नूर रॉय चौधरी के पास जिंदगी से नाखुश होने की दो वजह हैं। एक तो उसका कोई बॉयफ्रेंड नहीं है और दूसरा वह अपने जॉब में जो करना चाहती है उसे करने नहीं दिया जाता है। वह पत्रकार है और खोजी पत्रकारिता करना चाहती है लेकिन उसका बॉस उससे सनी लियोनी का इंटरव्यू करवाता है।  

फिल्म नूर के साथ समस्या यह है कि नूर के किरदार पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया गया है। उसे मजेदार और दिलचस्प बनाने की खूब कोशिश की गई है लेकिन यह उतना मजेदार नहीं बन पाया है। अपनी जिंदगी से नूर परेशान हैयह बात बिलकुल भी नहीं झलकती है। और इस मूवी में नकलीपन बहुत हावी है।  

कहानी में दो ट्विस्ट आते हैं। नूर के हाथ एक दिन ऐसा सूत्र लगता है जिसके बूते पर वह शरीर के अंग बेचने वालों का भंडाफोड़ कर सकती है लेकिन उसका बॉस इस मसले को बहुत ही हल्के से क्यों लेता है समझ से परे है। दूसरा ट्विस्ट ये कि नूर कुछ करे उसके पहले उसका साथी धोखा देते हुए इस खबर को ब्रेक कर देता है। यहां फिल्म थोड़ा चौंकाती है लेकिन जल्दी ही फिल्म फिर से बेपटरी हो जाती है।  

हताश नूर को उसका दोस्त लंदन ले जाता है और यह पूरा किस्सा कहानी को किसी भी तरह से कोई मजबूती नहीं देता। सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाने के काम आता है।  

नूर फिर मुंबई लौटती है और इस मामले में अपनी ओर से खोजबीन करती है। बड़ी आसानी से सब कुछ हो जाता है। ऐसा लगता है कि बिना कुछ किए धरे नूर ने वह हासिल कर लिया जिसके लिए वह पूरी फिल्म में झटपटा रही थी। जो लोग गवाही देने से घबरा रहे थे वे अचानक सामने आ जाते हैं। यह मामला अत्यंत आश्चर्यचकित है। निर्देशक ने इसमें गंभीरता नहीं दिखाई है लिहाजा दर्शक भी इस बात से जुड़ नहीं पाते हैं।  

नूर जिस डॉक्टर के चेहरे से मुखौटा उतारती है वह कभी इतना शक्तिशाली लगा ही नहीं कि महसूस हो कि नूर ने बहुत बड़ा काम किया है। उस डॉक्टर की चर्चा बस संवादों तक ही सीमित है उसे फिल्म में महज एक-दो सीन में दिखाया गया है। यह स्क्रिप्ट राइटर्स की बड़ी भूल है।

निर्देशक सुनील सिप्पी का सारा ध्यान माहौल को बेहद कूल रखने में ही गया है। उन्होंने फिल्म को अर्बन लुक दिया है और फिल्म के मूड को हल्का-फुल्का रखा है लेकिन कई जगह स्क्रिप्ट की डिमांड थी कि फिल्म में तनाव पैदा हो। स्क्रिप्ट की कमियों पर भी उन्होंने ध्यान नहीं दिया है। कई दृश्य बहुत लंबे हो गए हैं। वाइस ओवर इतना ज्यादा है कि झल्लाहट होती है। यह निर्देशक की कमी को दर्शाता है। फिल्म दो घंटे से भी कम समय की है और वे इतने में भी वे दर्शकों को बांध नहीं पाए।  

तकनीकी रूप से फिल्म अच्‍छी है। आर्ट डायरेक्शन उम्दा है। सिनेमाटोग्राफी शानदार है। कीको नाकाहारा ने मुंबई को बहुत ही उम्दा तरीके से शूट किया है। मुंबई की इस तरह की लोकेशन शायद ही पहले हिंदी फिल्म में देखने को मिली हो। बैकग्राउंड म्युजिक भी अच्‍छा है।  

अभिनय के मामले में फिल्म का पक्ष मजबूत है। सोनाक्षी सिन्हा की मेहनत उनके अभिनय में दिखती है लेकिन स्क्रिप्ट की कमी के चलते उनकी मेहनत बेकार होती नजर आती है। पूरब कोहली छोटे से रोल में असर छोड़ते हैं। एमके रैना कनन गिल शिबानी दांडेकर और स्मिता तांबे का अभिनय भी प्रशंसनीय है।  

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