फ़िल्म: हिंदी मीडियम
निर्देशक: साकेत चौधरी
कलाकार: इरफ़ान खान, सबा कमर, दीपक डोबरियाल
रेटिंग: 4.5 स्टार
निर्देशक साकेत चौधरी की हिंदी मीडियम सिर्फ़ एक फ़िल्म नहीं है, कई छोटे-छोटे किस्से हैं, राज यानि इरफ़ान खान और मीता बत्रा यानि सबा कमर की ज़िन्दगी के, जो एक कॉमन धागे से सिले गए हैं कॉमन धागा है उनकी बेटी का स्कूल में एडमिशन | बच्ची का एडमिशन कोई छोटा काम नहीं है, कि स्कूल गए, बच्ची ने एक कविता सुना दी और अगले दिन से पढ़ाई शुरू, यह एक मिशन है, जो पूरा तो होता है लेकिन कई जिंदगियों पर अपना असर छोड़ जाता है |
फ़िल्म में सामाजिक ऊंच-नीच है, हाई सोसाइटी में फिट होने की कोशिश है, गरीबी में जीना सीखाया गया है कि कैसे अमीर-गरीब के बीच की खाई को हमारे देश का एजुकेशन सिस्टम और चौड़ा कर देता है | फ़िल्म की कहानी दिखाती है कि कैसे किसी आर्थिक रुप से कमज़ोर परिवार का बच्चा इंग्लिश स्कूल में नहीं पढ़ सकता, सरकारी स्कूलों में कोई सुविधाएं नहीं है खैरात में कुछ सीटें दे दी गई हैं गरीबों को लेकिन उनपर भी फ्रॉड लोग कब्ज़ा किए बैठे हैं, ऐसा संदेश फिल्म दे रही है ,फ़िल्म की थीम में जान डालता है, बैकग्राउंड स्कोर में चलता ये दोहा, " जो सुख पावो राम भजन में, सो सुख नाही अमीरी में, मन लागो मोरे यार फकीरी में."
कहानी :
चांदनी चौक का रहने वाला राज बत्रा विशुद्ध देसी आदमी है, बाप दादाओं की टेलर की दुकान थी, राज बत्रा उनसे चार कदम आगे बढ़ गया, अब चांदनी चौक में उसकी लहंगों की दुकान है, ना पैसे की कमी है ना ठाठ-बाट की, ग्राहकों को भगवान मानता है लेकिन बीवी मातारानी होती है अच्छा पति बनने के लिए बीवी माता की हर बात मानता है | वह चांदनी चौक से बाहर निकल जाता है लेकिन चांदनी चौक उसमें से कभी नहीं निकलता| वहीं उसकी बीवी मीता एक मिशन पर हैं, मिशन बेटी का एडमिशन, बीवी चाहती है बेटी इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़े. बड़ी होकर कुछ बन सके हाई-क्लास हो सके समाज में कुछ इज्ज़त कमा सके | राज और मीता दिल्ली के टॉप 5 स्कूलों के चक्कर लगाते हैं, कंसलटेंट से मिलते हैं पैसे खर्च करते हैं, चांदनी चौक छोड़कर वसंत विहार के हाई-क्लास मोहल्ले में शिफ्ट हो जाते हैं, लेकिन जो एडमिशन आसानी से हो जाता तो फ़िल्म कैसे बनती! कोई नया तरीका सुझा देता है | गरीब कोटा, क्योंकि कमज़ोर का हक़ खाने की छूट तो हर किसी को है वसंत विहार की पॉश कॉलोनी छोड़कर भरतनगर की गरीब बस्ती में शिफ्ट होने का फैसला लिया जाता है यहां से उनकी ज़िन्दगी बदलती है, सातों पुश्तों से गरीब लोगों के बीच कम में जीने का तरीका आता है पानी, अनाज और घर के अभाव के बावजूद असली अमीरी उनको यहीं दिखती है बेटी का एडमिशन हो जाता है लेकिन इसके बदले किसी और की ज़िन्दगी बर्बाद हो जाती है | फ़िल्म की कहानी बहुत ताज़ी है, लेकिन फ़िल्म का क्लाइमेक्स बोझिल लगता है, फ़िल्म देखते हुए आप राज और मीता की ज़िन्दगी का हिस्सा बन जाते हैं, लेकिन अंत में सब कुछ इतने नाटकीय तरीके से होता है कि आपके आसपास बना भ्रम टूट जाता है और आपको लगने लगता है आप फ़िल्म ही देख रहे हैं |
मदारी की ही तरह इस फ़िल्म के अंत में भी इरफ़ान का एक मोनोलॉग है जो कहीं कहीं जाकर मॉरल साइंस की क्लास लगता है, लेकिन क्योंकि फ़िल्म की कहानी में नयापन है और यह एक असल मुद्दे को उठाती है, इसके लिए हम इसे 5 स्टार दे रहे हैं |
डायलॉग :
फ़िल्म के डायलॉग इस फ़िल्म की जान हैं, डायलॉग अमितोष नागपाल ने लिखे हैं, अमितोष को आप एक्टिंग करते हुए फ़िल्म दबंग में देख चुके हैं इस फ़िल्म के डायलॉग इतने असल मालूम पड़ते हैं कि आप सोचते हैं अगर मैं इस जगह होता तो बिलकुल यही बात कहता डायलॉग्स के लिए हम इस फ़िल्म को दे रहे हैं 4 स्टार
एक्टिंग :
किसी युद्ध के लिए तैयार हथियारों से लैस सेना जैसी स्टारकास्ट है इस फ़िल्म की इरफ़ान खान जिनके बारे में कुछ भी लिख देना बहुत हल्का लगता है, उनकी कशमकश, उनका गुस्सा, बिटिया के लिए उनका दुलार और पश्चाताप भरी उनकी आंखें! मन करता है सिनेमा हॉल की स्क्रीन को पॉज़ कर दिया जाए | और उनका साथ देती हुई सबा कमर अगर आपने सबा को पाकिस्तानी सीरियल मात में देखा है तो आप उनकी एक्टिंग के दीवाने होंगे लेकिन अगर उनको देखने का यह आपका पहला मौका है तो यह आपके लिए किसी ट्रीट से कम नहीं होगा हर छोटे-बड़े एक्सप्रेशन इतनी ख़ूबसूरती से निभाए हैं सबा ने | इरफ़ान और सबा की केमिस्ट्री बहुत असली लगती है, एक ज़िद्दी लेकिन मजबूर मां और अपनी हर बात मनवा लेने वाली पत्नी बनी सबा पर आपको कई बार बहुत गुस्सा भी आएगा, लेकिन उनकी इसी एक्टिंग से आपको प्यार भी हो जाएगा | एक्टिंग के लिए हम इस फ़िल्म को दे रहे हैं 4.5 स्टार
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